- पशुपतिनाथ की मूर्ति
- अष्टमुखी का प्राकट्य
- पशुपतिनाथ मेला – पटोत्सव
- पशुपतिनाथ मन्दिर परिसर
- शिवना नदी
- पशुपतिनाथ मंदिर प्रबंधन समिति
- आरती समय सारणी –
पशुपतिनाथ महोदव
मन्दसौर शहर के दक्षिण में बहने वाली पुण्य सलिला शिवना के दक्षिणी तट पर बना अष्टमुखी पुशपतिनाथ का मन्दिर इस नगर के प्रमुख आकर्षण का केन्द्र है। अष्टमुखी शिवलिंग की विश्व में यह एक मात्र प्रतिमा है। आग्नेय शिला के दुर्लभ खण्ड पर निर्मित यह प्रतिमा किसी अज्ञात कलाकार की अनुपम कृति है जो सदियों पूर्व शिवना की गोद में समा गयी थीं। इस विशाल ओजस्वी प्रतिमा के दर्शन करने पर एक अद्भुत शांति मन को प्राप्त होती है। इस प्रतिमा के बाद 20 वीं शताब्दी में कोई पचास से भी अधिक प्रतिमाएँ शिवना की सिकता से प्रकट हो चुकी हैं जिनमें से अधिकांश औलिकर काल (6-7 वीं शताब्दी) की है। इसी आधार पर अष्टमुखी का काल निर्णय किया जाना चाहिए।
भव शवो रूद्र: पशुपतिरयोग्र: सहमहां स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम।
अमुष्मिन प्रत्येक प्रविचरित देव श्रुतिरपि प्रिया यास्मे धाग्ने प्रविहितनमस्योमि भवते।
हे देव: भव शर्व रूद्र उग्र महादेव भीम ईशान ये जो आपके आठ नाम हैं इनमें प्रत्येक वेदस्मृतिपुराणतत्रं आदि में बहुत भ्रांति हैं अतएव हे परमप्रिय मैं तेज स्वरूप को मन वाणी और शरीर से नमस्कार करता हुँ।[/vc_column_text][/vc_column_inner][/vc_row_inner]
आग्नेय शिला के दुर्लभ खण्ड पर निर्मित शिवलिंग की यहअष्टमुखी विश्व की एक मात्र प्रतिमा है। 2.5*3.20 मीटर आकार की इस प्रतिमा का वजन लगभग 46 क्विंटल 65 किलो 525 ग्राम हैं। सन् 1961 ई में श्री प्रत्यक्षानन्द जी महाराज द्वारा मार्गशीर्ष 5 विक्रम सम्वत् 2016 (सोमवार 27 नवम्बर 1961) को प्रतिमा का नामकरण किया गया एवं प्रतिमा की वर्तमान स्थल पर प्राण प्रतिष्ठा हुई।
प्रतिमा की तुलना नेपाल स्थित पशुपतिनाथ प्रतिमा से की जाती है, किन्तु नेपाल स्थित प्रतिमा में चार मुख उत्कीर्ण हैं, जबकि यह ऐतिहासिक प्रतिमा भिन्न भिन्न भावों को प्रकट करने वाले अष्टमुखों से युक्त उपरी भाग में लिंगात्मक स्वरूप लिये हुऐ हैं। इस प्रतिमा में मानव जीवन की चार अवस्थायें- बाल्यकाल, युवावस्था, प्रोढावस्था व वृध्दावस्था का सजीव अंकन किया गया हैं। सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से भी पशुपतिनाथ की प्रतिमा अपनी बनावट और भावभिव्यक्ति में उत्कृष्ट हैं। इस प्रतिमा के संबंध में यह एक देवी संयोग ही रहा कि यह सोमवार को शिवना नदी में प्रकट हुई। रविवार को तापेश्वर घाट पहुंची एवं घाट पर ही स्थापना हुई। सोमवार को ही ठीक 21 वर्ष 5 माह 4 दिन बाद इसकी प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। मंदिर पश्चिमामुखी है। प्रतिमा प्रतिष्ठा की शुभ स्मृति स्थापना दिवस को पाटोत्सव के रूप में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है एवं मेले का आयोजन किया जाता हैं। मेला प्रतिवर्ष कार्तिक एकादशी से मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी तक आयोजित किया जाता है। अष्टमुर्ति की साज सज्जा का विवरण कालिदास के निम्न वर्णन से मिलता है-
कैलासगौरं वृषमारूरूक्षौ: पादार्पणानुगृहपृष्ठम।
अवेहि मां किडरमष्टमूर्ते:, कुम्भोदर नाम निकुम्भमित्रम्।
पूर्व मुख- शांति तथा समाधिरस का व्यंजक हैं। भाल पर माला के दो सुत्रों का बंध हैं। सूत्रों के उपर गुटिका कलापूर्ण ग्रंथियो से ग्रथित हैं। सर्प कर्णरंध्रो से निकलकर फणाटोप किये हैं। गले में सर्पमाला एवं मन्दारमाला है। अधर और ओष्ट अत्यंत सरल एवं सौम्य है। नेत्र अघोंन्मीजित है। मुखमुद्रा कुमारसम्भव में वर्णित शिव समाधि की याद दिलाती है। तृतीय नेत्र की अधिरिक्तता प्रचण्ड हैं, मानों सदन को अलग बना देने को तत्पर हो।
दक्षिण मुख- मुख सौम्य हैं एवं केश कलात्मक रूप से किया गया हैं। श्रृंगार में सुरतीघोपन और श्रमापानोदन के लिये चंद्ररेखा है। गले सर्प द्वय की माला एवं सर्पकुण्डल हैं। यह मुख अतीव कमनीय है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कुमार संभव का वर अपनी विवाह यात्रा पर चलते समय अपनी श्रृंगार लक्ष्मी की आत्मा मोहिनी छवि को देखकर सोच विचार कर स्वयंमेव मुग्ध होकर रसमग्न हो रहा है।
उत्तर मुख- यह मुख जटाजूट से परिपूर्ण हैं तथा इसमें नाग गुथे हुये हैं। जटायें दोनों ओर लटकी है। गाल भारी गोल मटोल कर्ण- कुण्डलो से युक्त तथा रूद्राक्ष और भुजंगमाला पहने हैं।
पश्चिम मुख- शीर्ष में जटाजूटों का अभाव है तथा केश नाग ग्रंथियों से ग्रंथित है। मुख में रौद्र रूप स्पष्ट हैं। नेत्र एवं अधोरष्ट क्रोध में खुले हुए है, मुख वक्र है। इस मुख को तराश कर नवीन कर दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुमारसम्भव के योगिश्वर की समाधि भंग हो गयी हो।
अभिज्ञान शाकुतलम् में (1/1) महाकवि कालिदास ने इन अष्टमूर्ति को यों प्रणाम किया है:
या सृष्टि: सष्टुराधा वहति विधिहुंत या हविर्या च होत्री।
या द्वे कालं विषयागुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
या माहु: सर्वे: प्रकृतिरिति यथा प्रणानि:।
प्रत्यक्षामि: प्रसन्नस्तनुभिखत् वस्ताभिरष्टाभिरीश:।।
(विधाता की आघसृष्टि (जलमूर्ति) विधिपुर्वक हृदय को ले जाने वाली(अगिनमूर्ति) होत्री(यजमान मुर्ति) दिन रात की कत्री (सूर्य- चंद्र मूर्तिया सब बीजों की प्रकृति (पृथ्वी मूर्ति) और प्राणियों के स्वरूप (वायुमूर्ति)- इन सब प्रत्यक्ष अपनी अष्टमूर्तियों से भगवान महेश्वर आप प्रसन्न हो।)
अष्टमुखी का प्राकट्य –
इस प्रतिमा के खेजकर्ता स्व. उदाजी सुपुत्र कालू जी धोबी (फगवार) थे। उदाजी ने इसे जेठ सुदी 5 सम्वत् 1997 (सोमवार, 10 जून 1940) को मन्दसौर किले के नदी दरवाजे (दक्षिण-पूर्व) के सामने स्थित चिमन चिश्ती की दरगाह के सामने नदी के इस पर रेत में पड़ी देखा। श्री उदाजी शैकिया पहलवान थे और महावीर व्यायाम शाला से जुड़े थे अत: उन्होंने इसकी सूचना बाबू शिवदर्शनलाल अगवाल को प्रदान की जो हिन्दू महासभा के सक्रिय कार्यकर्ता व महावीर व्यायाम शाला के संस्थापक थे।
बाबू शिवदर्शन लाल अग्रवाल के उदाजी की सूचना पर स्वयं जाकर प्रतिमा का अवलोकन किया। ग्रीष्मकाल में पानी सूख जाने के कारण मूर्ति रेत पर आड़ी पड़ी हुई थी। उसके चेहरे साफ दृष्टिगोचन हो रहे थे।
इस प्रतिमा की प्राप्ति के लिये श्री अग्रवाल ने अपने साथी श्री भँवरलाल (सदस्य ओकाफ कमेटी, मन्दसौर) के संयुक्त हस्ताक्षर से तहसीलदार कार्यालय में आवेदन प्रस्तुत किया। तहसीलदार महोदय ने दिनांक 14 जून 1940 को आदेश जारी किया जो दिनांक 19 जनू 1940 को श्री अग्रवाल को तामिल हुआ।
श्री अग्रवाल ने मन्दसौर की जनता व महावीर व्यायाम शाला के सदस्यों के सहयोग से विशाल भीड़ के साथ गाजे-बाजे से कोई चार दिन के श्रमदान के बाद, इस प्रतिमा को नदी से बाहर निकालकर सदर बाजार होते हुए तत्कालीन श्री तापेशवर महादेव घाट पर नीम के वृक्ष के नीचे रविवार 4 आषाढ़ कृष्ण पक्ष सम्वत् 1997 (रविवार, 23 जून, 1940 ई.) को लाकर रखा।
यह स्थान वर्तमान पशुपतिनाथ मन्दिर से दक्षिण पूर्व में स्थित जानकीनाथ मन्दिर व बावड़ी के मध्य था। श्री अग्रवाल ने इस प्रतिमा का समय-समय पर परिष्कार कराया, स्थापना के प्रयास किए तथा असामाजिक तत्वों से कोई 21 वर्ष 5 माह 3 दिन तक इसकी रक्षा की। ‘शिव’ और ‘शिवदर्शन’ का यह अद्भुत संयोग रहा।
सन् 1961 ई. में अवधूत श्री चैतन्यदेव (मेनपुरिया आश्रम, दीक्षा 1919 ** निर्वाण 1962) के सुयोग्य शिष्य स्वामी श्री 1008 श्री श्री प्रत्यक्षानन्दजी (1907 ** 1981 ई.) कालूखेड़ा वाले का मन्दसौर के सत्संग भवन में चातुर्मास चल रहा था।
स्वामी प्रत्यक्षानन्द जी ने अपने सद्गुरूदेव की समाधि से लौटते हुए दिनांक 13 नवम्बर, 1961 को इस दिव्य प्रतिमा के दर्शन किए। आपके मन में इसे स्थापित करने का संकल्प जाग्रत हुआ।
स्वामीजी के सद्प्रयासों से ही श्री तापेश्वर महादेव घाट पर ”श्री लाकमहेश्वर पंचकुण्डात्मक महायज्ञ” (23-11-1961) की पूर्णाहुति दिवस पर इस प्रतिमा की वर्तमान स्थल पर प्रतिष्ठा हुई। मार्गशीर्ष, कृष्ण 5 विक्रम सम्वत् 2018 (सोमवार, 27 नवम्बर, 1961) को स्थापति इस प्रतिमा का नामकरण सहस्त्रों धर्मप्रेमियों के मध्य स्वयं स्वामीजी के द्वारा ”श्री पशुपतिनाथ महादेव” किया गया।
स्वामी जी के द्वारा प्रतिमा स्थापना करने के पूर्व कई मत-मतान्तर आये। स्वामी जी ने काशी के विद्वानों से लम्बा पत्र व्यवहार किया। विद्वानों ने सूत्रधार मण्डन (14-15 वीं शताब्दी) को प्रमाण मानकर निर्णय दिया।
अतीशब्दशता मूर्तिया पूज्या स्यान्महत्तमै :।
खण्डिता स्फुटिताऽप्यर्च्या अन्याथा दु:खदायका।।
अर्थात् – सौ वर्ष से प्राचीन मूर्ति यदि खण्डित हो या चटक गयी होतो पूजा के योग्य है। इस शास्त्रोक्त प्रमाण व सच्ची श्रृद्धा का केन्द्र बिन्दु बनी यह प्रतिमा आज नगर का प्रमुख आकर्षण है।
इस प्रतिमा के प्राकट्य के बाद 1941 में इस नगर की जनसंख्या 21,972 थी। सन् 2001 की जनगणना में नगर की जनसंख्या लगभग 1 लाख के ऊपर पहुँच गई है जो इस नगर की निरंतर प्रगति का सूचक है। इस नगर में आने वाला पर्यटक दर्शनार्थी बनकर श्री पशुपतिनाथ के दर्शन कर, अपना जीवन धन्य समझता है। यही कारण है कि देश की अनेक दिग्गज हस्तियाँ पशुपतिनाथ के चरणों में पहुँच कर नत-मस्तक हुई हैं।
इस प्रतिमा के सम्बन्ध में यह एक दैवी संयोग ही रहा कि यह सोमवार को शिवना नदी में प्रकट हुई। रविवार को तापेश्वर घाट पर पहुँची। इसी दिन इसकी स्थापना हुई व सोमवार को ही ठीक 21 वर्ष 5 महा 4 बाद इसकी प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।
इस चमत्कारी प्रतिमा का धीरे-धीरे इतना प्रभाव बढ़ा कि इस विशाल देवालय की नींव पड़ी। आज यह 90 फीट लम्बा और 30 फीट चौड़ा व 101 फीट ऊँचा विशाल मन्दिर अपने भक्तों को बरबस खींच लेता है। पशुपतिनाथ मंदिर के शिखर पर 100 किलो का कलश स्थापित है जिस पर 51 तोले सोने का पानी चढ़ाया गया है। इस कलश का अनावरण 26 फरवरी 1968 को स्व. राजमाता श्रीमंत विजयाराजे सिंधिया द्वारा किया गया था।
मन्दिर प्रांगण में ही एक विशाल सत्संग हाल का निर्माण पिछले वर्षों में हुआ है। मंदिर परिसर में श्री रणवीर मारूती मंदिर, मंदिर दाहिनी ओर श्री जानकीनाथ मंदिर, पश्चिम दिशा में थोडी दूरी पर प्रत्यक्षानन्द जी महाराज की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। आगे की ओर बाबा मस्तराम महाराज की समाधि हैं। सिंहवाहिनी दुर्गामंदिर, श्री गायत्री मंदिर, श्री गणपति मंदिर, श्री राम मंदिर, श्री बगुलमुखी माता मंदिर, श्री तापेश्वर महादेव मंदिर, सहस्त्रलिंग मंदिर भी मंदिर में स्थापित हैं। साथ ही मन्दिर पहुँचने के लिए पहले छोटी पुलिया थी अब साथ ही बड़ी पुलिया का निर्माण भी किया गया है जिससे मन्दिर पहुचने में आसानी हो गई है व वर्षा ऋितु के मौसम में भी मंदिर आसानी से पहुंचा जा सकता है हाल ही में 2016 के सिहस्थ आयोजन उज्जैन में हुआ उस संदर्भ में मन्दसौर पशुपतिनाथ मंदिर के आस पास भी निर्माण कार्य हेतु राशि शासन द्वारा आवंटित की गई इस राशि से एक पुल प्रतापगढ़ पुलिया से नई बड़ी पुलिया से मिलान हेतु बनाया गया जिससे मंदिर पहुँचना ओर भी आसान ओर सहज हो गया है व पुरातत्व संग्रहालय से मंदिर पहुँच मार्ग पर एक विशाल विश्राम गृह का निर्माण भी किया गया है। दर्शनार्थियों के लिए मंदिर द्वारा निम्न मुल्य पर भोजन व्यवस्था भी की जाती है। मन्दिर परिसर को वर्ष 2016 में और भी अधिक भव्य रूप प्रदान किया गया है जिससे मन्दिर की व्यवस्था व साज सज्जा अर्न्तराष्ट्रीय स्तर के मन्दिरों के समान हो गई है।
पशुपतिनाथ मेला – पटोत्सव
पशुपतिनाथ की स्थापना के बाद पहली शिवरात्रि पर मेले का शुभारम्भ किया गया। पहला श्री पशुपतिनाथ मेला दिनांक 4 मार्च 1962 से 6 मार्च 1962 तक आयोजित किया गया। प्रतिमा प्रतिष्ठा की शुभ स्मृति में स्थापना दिवस को पटोत्सव के रूप में आयोजित करने का निर्णय लिया गया। तद्नुसार पहला पटोत्सव 16 नवम्बर 1962 को आयोजित किया गया।
अष्टमूर्ति भगवान श्री पशुपतिनाथ के प्रतिष्ठोत्सव की पावन की स्मृति द्वारा प्रतिवर्ष मार्ग शीर्ष कृष्ण पंचमी को पाटोत्सव समारोहपूर्वक आयोजित किया जाता हैं। इसी दिन शुभ मुहूर्त में विक्रम संवत 2018 में भगवान श्री पशुपतिनाथ की विधि विधान कै साथ प्रतिष्ठा हुई थी। मूर्ति के प्रतिष्ठात्मक स्वामी श्री प्रत्यक्षानन्दजी महाराज के इस उत्सव का शुभांरभ किया। वर्तमान में पटोत्सव व मेले का आयोजन साथ-साथ किया जाता है मेला प्रतिवर्ष कार्तिक, कृष्णा एकादशी से मार्ग-शीर्ष कृष्णा पंचमी तक आयोजित किया जाता है, जो कार्तिक कृष्ण की पूर्णिमा पर इस पवित्र स्थल पर असंख्य भक्तों का अंबार उमर पडता हैं और पशुपतिनाथ महादेव को नमाने वालों की संख्या एक लाख से अधिक पॅहुच जाती हैं।
इस अवसर पर प्रतिदिन वेदपाठी ब्राहम्णों द्वारा रूद्राभिषेक संत महात्माओं के प्रवचन एवं सायंकालीन आरती के समय भगवान श्री पशुपतिनाथ के नित्य जीवन नवीन श्रृंगार किया जाता हैं। विधुतछटा से जगमगाता मंदिर का पूरा परिवेश इतना आर्कषक एवं रमणीय लगता हैं कि सहस्त्राधिक संख्या दर्शनार्थी श्रद्वालुजन भाव विभोर हुऐ बिना रहते तथा ऐसे श्रृद्वासिक्त वातावरण में भगवान श्री दर्शन कर अपने जीवन को धन्य मानते हैं।
पाटोत्सव के इन्ही दिनों में सन् 1963 से नगरपालिका ने भी श्री पशुपतिनाथ महादेव मेला आयोजित करना आंरभ किया जो उत्तरोत्तर प्रगति के साथ प्रतिवर्ष लगता हैं। नगर पालिका द्वारा आयोजित इस मेले में मनोरंजन एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में साथ ही साहित्यिक कार्यक्रम भी होते हैं। स्थानीय एवं दूर-दूर से गावों व नगरों से आकर जहॉ वे भगवान श्री पशुपतिनाथ के दर्शन कर आंनदित होते हैं वही व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का प्रचार प्रसार करते हैं। इसके अतिरिक्त मेले में शासकीय गतिविधियों एवं जनल्याणकारी विकास के कार्यो की प्रदर्शनियॉ भी लगाई जाती हैं जिनसे जनसामान्य को यह जानकारी प्राप्त हो सके कि हमारे प्रदेश एवं देश में शासन जनहित में निर्धारित योजनाओं को किस प्रकार मूर्तरूप दे प्राप्त रहा हैं। मध्यप्रदेश का सूचना एवं प्रकाशन विभाग इस प्रकार की प्रदर्शनियॉ आयोजित करता हैं। राष्ट़ीय एकता का परिचायक इस मेले के कारण पूरे समय तक मेला क्षैत्र में ही नही अपितु नगर के प्रमुख मार्गो पर भी चहल पहल रहती है।
श्री पशुपतिनाथ समिति द्वारा आयोजित पाटोत्सव के अवसर पर नगर पालिका के तत्वाधान में लगने वाले इस पशुपतिनाथ मेला के अतिरिक्त श्रावस मास में प्रति सोमवार एवं महाशिवरात्रि पर्व पर भी दर्शनार्थियों की भारी मात्रा एकत्रित होती हैं जो अनायास ही मेले का रूप धारण कर लेता हैं। पर्व के इन दिनों में भी रूद्राभिषेक के साथ भगवान श्री पशुपतिनाथ का विशेष पूजन एवं सुन्दर श्रृंगार होता हैं वैसे बारह मास प्रात:कालीन आरती के मण्डल द्वारा पूजन-अर्चन एवं विशेष अवसर पर अभ्रिषेक किया जाता हैं, जबकि मंदिर प्रबंध समिति सायंकालीन आरती के समय भगवान का इस प्रकार सात्विक श्रृंगार करती हैं कि दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध हुए बिना नही रहते। इसी प्रकार पाटोत्सव की तिथि पंचमी होने के कारण उसकी स्मृति में प्रत्येक मास की पंचमी को भी समिति द्वारा अभिषेक एवं विशेष प्रकार का पूजन अर्चन होता हैं।
पशुपतिनाथ मन्दिर परिसर-
मन्दिर परिसर में अन्य देवी देवताओं के मन्दिर भी विद्यमान है जिससे दर्शनार्थियों को एक साथ अन्य देवी देवताओं के दर्शन का भी लाभ मिल सेके। इस मन्दिर परिसर में स्व. पण्डित रामनारायण शर्मा ने ‘श्री रणबीर मारूति’ मन्दिर की स्थापना की। इस मन्दिर में दाहिनी ओर श्री जानकीनाथ मन्दिर है। इसका निर्माण पशुपतिनाथ प्रबंध समिति द्वारा कराया गया है। पश्चिम दिशा में बढ़ने पर एक प्राचीन छत्री में स्वामी श्री प्रत्यक्षानन्द जी महाराज की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इसके आगे ही बाबा मस्तराम महाराज की समाधि है। स्व. मस्तराम पाण्डेय ‘श्री गौड’ ब्राह्मण थे व प्राचीन तापेश्वर महादेव की रक्षा करते हुए विधर्मी बलवाइयों के हाथों दिनांक 11 नवम्बर 1935 को बलिदान हुए थे। इससे आगे सिंहवाहिनी दुर्गा माता मन्दिर है। यह प्रतिमा श्री पी.व्ही. वल्लभदास (सेवा निवृत्त विक्रय कर अधिकारी) द्वारा भेंट की गई थी। इसके सामने मराठायुगीन श्री तापेश्वर महादेव मन्दिर है। इसका निर्माण मराठा काल में प्राचीन मन्दिरों के अवशेषों से किया गया था। इसकी सीढ़ियों से वर्ष मार्च, 1884 में कुमार गुप्त तथा बन्धुवर्मन का अभिलेख मिला था। इसमें संसार का पहला विज्ञापन उत्कीर्ण किया गया है। वर्तमान में यह अभिलेख ग्वालियर के गूजरी संग्रहालय में है। इसके पास सहस्त्रलिंग मन्दिर है। इससे आगे फूलमाली समाज का गणपति मंदिर, श्री गायत्री मंदिर, सकल पंच वसीठा धोबी समाज द्वारा निर्मित विशाल श्री राम मन्दिर व श्री बगुलामुखी माता मन्दिर हैं। ये सभी मन्दिर शिवना तट पर हैं।
पशुपतिनाथ मन्दिर प्रांगण में यात्रियों के ठहरने के लिए सुन्दर व सस्ती धर्मशालाएँ व विश्राम गृह है। मन्दिर प्रांगण में विश्रांति कक्ष है जिसे आरक्षित किया जा सकता है। असके अलावा फूलमाली समाज, वसीठा धोबी समाज की धर्मशाला है।
शिवना नदी –
पुराने मानचित्रों में इस नदी का नाम SAU तथा SEU मिलता है। यह राजस्थान के चित्तौड़गढ जिले के सालमगढ़ कस्बे से लगभग 4 किमी दूर रायपुरिया की पहाडियों की तलहटी में शवना नामक छोटा सा ग्राम बसा हैं यहाँ से निकलती हैं। यह ताम्राष्म युगीन बस्ती हैं। यहाँ महाकाल चौबीस खंभा आदि 8 प्राचीन मंदिर है। शवना ग्राम के समीप से शिवना का उद्गम है इसलिए यह नदी शिवना के नाम से प्रख्यात है। शिवना नदी 65 कि.मी. का सफर तय करने के उपंरात यह बोरखेड़ी नामक स्थान पर चंबल में मिलती हैं।
पशुपतिनाथ मंदिर प्रबंधन समिति –
भगवान श्री पशुपतिनाथ मंदिर के सम्पूर्ण देख रेख का कार्य प्रबंधन समिति द्वारा किया जाता है। साथ ही मंदिर से सम्बंधित समस्त संस्थानों जैसे: पशुपतिनाथ अतिथि गृह, संस्कृत पाठशाला, मंदिर परिसर आदि के रखरखाव व समस्त जिम्मेदारिया समिति के दिशा निर्देशों पर कार्य किये जाते हैं।
कार्यालय श्री पशुपतिनाथ मंदिर प्रबंधन समिति : 07422 – 205288, 9977651377 (श्री दिनेश परमार)
प्रबंधक: 8109612008 (श्री राहुल रूनवाल)
आरती समय सारणी –
विवरण | ग्रीष्म काल | शरद काल |
प्रात: मंगला आरती | प्रात: 05:00 बजे | प्रात: 06:00 बजे |
स्थापित देवताओं का पुजन व अभिषेक | प्रात: 05:30 बजे | प्रात: 06:30 बजे |
श्रृंगार आरती | प्रात: 07:00 बजे | प्रात: 07:30 बजे |
राजभोग एवं आरती | प्रात: 11:00 बजे | प्रात: 11:00 बजे |
मध्यान शयन (पट बन्द) | दोपहर 01:00 बजे से 02:00 बजे तक | दोपहर 01:00 बजे से 02:00 बजे तक |
संध्या पुजन व श्रृंगार | सायं 06:00 बजे | सायं 05:00 बजे |
संध्या आरती | सायं 07:15 बजे | सायं 06:00 बजे |
भस्म लेपन व दुग्ध भोग एवं शयन आरती | रात्रि 10:00 बजे | रात्रि 9:30 बजे |
रात्रि शयन (पट बन्द) | रात्रि 10:30 बजे | रात्रि 09:45 बजे |