इतिहास अपने को दोहरा रहा लगता है। मध्यप्रदेश दूसरी बार ऐसी राजनीतिक अस्थिरता से दो-चार हो रहा है। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में डी पी मिश्रा की कमजोर बहुमत वाली कांग्रेस सरकार एक सिंधिया के विरोध के चलते ही गिरी थी। संयोग से इस बार ऐसे ही लकीर पर खड़े बहुमत के साथ कमलनाथ सरकार को गिराने का श्रेय भी शायद सिंधिया घराने को जा रहा है। तब दादी मुख्य भूमिका में थी। हो सकता है अब पौता इस खेल का मुखिया साबित हो। तब राजमाता ने राजनीति का चक्र मोड़ा था, इस बार महाराज को श्रेय मिल रहा है। अब अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक कांग्रेसी विधायक और केबिनेट मंत्री ही बेंगलुरू चले गए हैं तो जाहिर है सिंधिया के लिए कदम पीछे खींचना आसान नहीं होगा। तो चार दिन पहले दिग्विजय सिंह ने गुडगांव में कांग्रेस विधायकों के लिए जो हल्ला मचाया था, उसे आप भाजपा की ‘हल्लो टेस्टिंग’ का दर्जा दे सकते हैं। पर्दे के पीछे का खेल कांग्रेस की समझ में ही नहीं आया। और सोमवार को कांग्रेस के साथ ‘होली’ हो ली
प्रदेश की फिजाओं में तेजी से गरमी घुल रही है। दही खाने के लिहाज से यह मौसम बेहद मुफीद माना जाता है। तो क्या सियासी गर्मी के तेजी पकड़ते ही भाजपा ने कांग्रेस एवं बसपा, सपा तथा निर्दलीय विधायकों को वह दही खिला दिया है, जिसके चलते वे इस दल के खिलाफ मुंह नहीं खोल रहे हैं? कमलनाथ सहित दिग्विजय, जीतू पटवारी, शोभा ओझा तथा नरेंद्र सलूजा के आरोपों को नहीं दोहरा रहे हैं? अब सिंधिया समर्थकों ने एक नया सस्पेंस क्रिएट कर दिया है। अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा की सीट और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद हासिल करने के लिए इतनी नौटंकी करने के साथ ब्लेकमेल की हद तक गुजरना पड़ जाए तो इससे बुरा सिंधिया राजघराने के साथ मुझे नहीं लगता कि कुछ और हो सकता है। हां, अगर सिंधिया कांग्रेस से बाहर आ रहे हैं तो कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए। उनका डीएनए जनसंघ वाला ही है। इसलिए कांग्रेस के इस महाराज को भाजपा आसानी से जज्ब कर लेगी। आखिर राजमाता हमेशा भाजपा में पूज्यनीय दर्जे के साथ मौजूद रहीं।
उनकी बेटियों का भाजपा की राजनीति में कद है। ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया की राजनीतिक दीक्षा जनसंघ से हुई थी। इसलिए अगर भाजपा या संघ में आकर सिंधिया जज्ब हो जाएं तो बड़ी बात नहीं। इसलिए भी इस राजनीतिक दल की विशिष्ट कार्यशैली उन्हें खुद में ढाल लेने में सक्षम हैं। कांग्रेस के लिए ताजा हालात ‘उगलते बने न निगलते बने’ जैसे हो रहे हैं। सिंधिया को राज्यसभा के साथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद की उनकी मांग को पूरा करने का मतलब होगा, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का सिंधिया के सामने सरेंडर होना। यह ब्लेकमेल का ओपन ट्रेप जैसा होगा। इसके अलावा सत्ता के दो केन्द्र भी क्या कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को हजम हो पाएंगे। दिक्कत आम कांग्रेस कार्यकर्ता की है। जिन्हें न कमलनाथ हजम हो सकते हैं और ना ही ज्योतिरादित्य सिंधिया। आम कांग्रेसी की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। रहा सवाल सिंधिया को भाजपा में पचाने का तो बड़ा सवाल यही है कि क्या ग्वालियर-चंबल संभाग के बड़े भाजपाई ज्योतिरादित्य को पचा पाएंगे।
मुझे लगता है कि इस सवाल का हल भाजपा की आरएसएस पृष्ठभूमि में खोजा जाना चाहिए। मुंशी प्रेमचंद की एक अविस्मरणीय कहानी है, ‘प्रेम की होली’। इसमें एक बाल विधवा के किसी युवा ठाकुर के प्रति अनकहे लगाव को बहुत मार्मिक तरीके से वर्णित किया गया है। कहानी के अंत में ठाकुर की अकाल मृत्यु हो जाती है और नायिका के लिए होली की खुशी पूर्णत: अतीत का विषय बन जाती है। प्रदेश में कांग्रेस तथा भाजपा के बीच नाखुश विधायकों के साथ जो प्रेम की होली वाली कहानी चल रही है, उसका अंत किसी न किसी एक दल के लिए बुरा होना ही है। इस बुरे से आशय किसी की मृत्यु अथवा किसी की खातिर होली की खुशी का हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाने की कामना से नहीं है। लेकिन हां, हार का बुरा लगने वाला तत्व किसी के हिस्से तो आएगा ही। उसे अपनी यही सलाह है कि इस नतीजे को ‘बुरा न मानो होली है’ की तर्ज पर बिसरा कर फिर खुशी के रंगों का बंदोबस्त करने में जुट जाए। बीते कुछ दिनों से प्रदेश में जो कुछ चल रहा है, उसने भविष्य के लिए भी इस तरह के घटनाक्रमों की राह को पूरी तरह रास्ता खोल कर रख दिया है।
प्रकाश भटनागर